Natasha

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राजा की रानी

अब चुप रहने की मेरी पारी आई। उसके लगाये हुए अभियोग के मूल में युक्तियों द्वारा न्याय-विचार भी चल सकता था, सफाई देने के लिए नज़ीरों की भी शायद कमी नहीं पड़ती, परन्तु यह सब विडम्बना-सी मालूम हुई। उसकी सच्ची, अनुभूति के आगे मुझे मन-ही-मन हार माननी पड़ी। अपनी बात को वह ठीक तरह से कह भी नहीं सकी, परन्तु संगीत की जो अन्तरतम मूर्ति सिर्फ व्यथा के भीतर से ही कदाचित् आत्म-प्रकाश करती है, वह करुणा से अभिषिक्त सदा जाग्रत चेतना ही मानो राजलक्ष्मी के इन दो शब्दों के इंगित में रूप धारण करके सामने दिखाई दी। और उसके संयम ने, उसके त्याग ने, उसके हृदय की शुचिता ने फिर एक बार मानो मेरी ऑंखों में अंगुली देकर उसी का स्मरण करा दिया।

फिर भी, एक बात उससे कह सकता था। कह सकता था कि मनुष्य की परस्पर सर्वथा-विरुद्ध प्रवृत्तियाँ किस तरह एक साथ पास-ही-पास बैठी रहती हैं, यह एक अचिन्तनीय रहस्य है। नहीं तो मैं अपने हाथ से जीव-हत्या कर सकता हूँ, इतना बड़ा परमाश्चर्य मेरे ही लिए और क्या हो सकता है? जो एक चींटी तक की मृत्यु को नहीं सह सकता, खून से लथ-पथ बलि के यूप-काष्ठ की सूरत ही कुछ दिनों के लिए जिसका खाना-पीना-सोना छुड़ा देती है, जिसने मुहल्ले के अनाथ आश्रयहीन कुत्ते-बिल्लियों के लिए भी बचपन में कितने ही दिन चुपचाप उपवास किये हैं उसका जंगल के पुश-पक्षियों पर कैसे निशाना ठीक बैठता है, यह तो खुद मेरी समझ में नहीं आता। और क्या ऐसा सिर्फ मैं ही अकेला हूँ? जिस राजलक्ष्मी का अन्तर-बाहर मेरे लिए आज प्रकाश की तरह स्वच्छ हो गया है वह भी इतने दिनों तक साल पर साल किस तरह 'प्यारी' का जीवन बिता सकी!

मन में आने पर भी मैं यह बात मुँह से न निकाल सका। सिर्फ उसे बाधा न देने की गरज़ ही नहीं, बल्कि सोचा, “क्या होगा कहने से? देव और दानव दोनों कन्धे मिलाकर मनुष्य को कहाँ और किस जगह लगातार ढोये लिये जा रहे हैं, इसे कौन जानता है? किस तरह भोगी एक ही दिन में त्यागी होकर निकल पड़ता है, निर्मम निष्ठुर एक क्षण में करुणा से विगलित होकर अपने को नि:शेष कर डालता है, इस रहस्य का हमने कितना-सा संधान पाया है? किस निभृत कन्दरा में मानवात्मा की गुप्त साधना अकस्मात् एक दिन सिद्धि के रूप में प्रस्फुटित हो उठती है, उसकी हम क्या खबर रखते हैं? क्षीण प्रकाश में राजलक्ष्मी के मुँह की ओर देखकर उसी को लक्ष्य करके मैंने मन-ही-मन कहा, “यह अगर मेरी सिर्फ व्यथा पहुँचाने की शक्ति को ही देख सकी हो, व्यथा ग्रहण करने की अक्षमता को स्नेह के कारण अब तक क्षमा करती चली आई हो, तो इसमें मेरे रूठने की ऐसी कौन-सी बात है?”

राजलक्ष्मी ने कहा, “चुप क्यों रह गये?”

मैंने कहा, “फिर भी तो इस निष्ठुर के लिए ही तुमने सब कुछ त्याग दिया!”

राजलक्ष्मी ने कहा, “सब कुछ क्या त्यागा! अपने को तो तुमने नि:सत्व होकर ही आज मुझे दे दिया, उसे तो मैं 'नहीं चाहिए' कहकर त्याग न सकी!”

मैंने कहा, “हाँ, नि:सत्व होकर ही दिया है। मगर तुम तो अपने आपको देख नहीं सकोगी इसलिए, वह उल्लेख मैं न करूँगा!”
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पश्चिम के शहर में प्रवेश करने के पहले ही समझ में आ गया कि बंगाल के मलेरिया ने मुझे खूब ही मज़बूती के साथ पकड़ लिया है। पटना स्टेशन से राजलक्ष्मी के घर तक मैं लगभग बेहोशी की हालत में लाया गया। इसके बाद के महिने में भी मुझे ज्वर, डॉक्टर और राजलक्ष्मी लगभग हर वक्त ही घेरे रहे।

जब बुखार छूट गया तब डॉक्टर साहब ने घर-मालकिन को साफ तौर से समझा दिया कि यद्यपि यह शहर पश्चिम-प्रदेश में ही शामिल है और स्वास्थ्यप्रद स्थान के रूप में इसकी प्रसिद्धि है, फिर भी मेरी सलाह है कि रोगी को जल्दी ही स्थानान्तरित करना चाहिए।

फिर बाँध-बूँधी शुरू हो गयी, मगर अबकी बार जरा धूम-धाम के साथ। रतन को अकेला पाकर मैंने पूछा, “अबकी बार कहाँ जाना होगा, रतन?”

देखा कि वह इस नवीन यात्रा के बिल्कुलल ही खिलाफ है। उसने खुले दरवाजे की तरफ निगाह रखते हुए आभास और इशारे से फुस-फुस करके जो कुछ कहा, उससे मेरा भी जैसे कलेजा-सा बैठ गया। रतन ने कहा, “वीरभूम जिले में एक छोटा-सा गाँव है गंगामाटी। जब इस गाँव का पट्टा लिया था तब मैं सिर्फ एक मुख्तार साहब किसनलाल के साथ वहाँ गया था। माँ जी खुद वहाँ कभी नहीं गयीं। यदि कभी जाँयगी तो उन्हें भाग आने की राह भी ढूँढे न मिलेगी। समझ लीजिए कि गाँव में भले घर हैं ही नहीं-सिर्फ छोटी जातिवालों के ही घर हैं। उन्हें न तो छुआ ही जा सकता है और न वे किसी काम आ सकते हैं।”

राजलक्ष्मी क्यों इन सब छोटी जातों में जाकर रहना चाहती है, इसका कारण मानो मेरी समझ में कुछ आ गया। मैंने पूछा, “गंगामाटी है कहाँ?”

रतन ने जताया, “साँइथिया या ऐसी ही किसी स्टेशन से करीब दस-बारह कोस बैलगाड़ी में जाना पड़ता है। रास्ता जितना कठिन है उतना ही भयंकर। चारों तरफ मैदान ही मैदान है। उसमें न तो कहीं फसल ही होती है और न कहीं एक बूँद पानी है। कँकरीली मिट्टी है, कहीं गेरुआ और कहीं जली-हुई-सी स्याह काली।” यह कहकर वह जरा रुका, और खास तौर से मुझे ही लक्ष्य करके फिर कहने लगा, “बाबूजी, मेरी तो कुछ समझ ही में नहीं आता कि आदमी वहाँ किस सुख के लिए रहते हैं। और जो ऐसी सोने की सी जगह छोड़कर वहाँ जाते हैं, उनसे मैं और क्या कहूँ।”

भीतर-ही-भीतर एक लम्बी साँस लेकर मैं मौन हो रहा। ऐसी सोने की-सी जगह छोड़कर क्यों उस मरु-भूमि के बीच निर्बान्धव नीच आदमियों के देश में राजलक्ष्मी मुझे लिये जा रही है, सो न तो उससे कहा जा सकता है और न समझाया ही जा सकता है।

आखिर मैंने कहा, “शायद मेरी बीमारी की वजह से ही जाना पड़ रहा है, रतन। यहाँ रहने से आराम होने की कम आशा है, सभी डॉक्टर यही डर दिखा रहे हैं।”

रतन ने कहा, “लेकिन बीमारी क्या यहाँ और किसी को होती ही नहीं बाबूजी? आराम होने के लिए क्या उन सबको उस गंगामाटी में ही जाना पड़ता है?”

मन-ही-मन कहा, “मालूम नहीं, उन सबको किस माटी में जाना पड़ता है। हो सकता है कि उनकी बीमारी सीधी हो, हो सकता है कि उन्हें साधारण मिट्टी में ही आराम पड़ जाता हो। मगर हम लोगों की व्याधि सीधी भी नहीं है और साधारण भी नहीं; इसके लिए शायद उसी गंगामाटी की ही सख्त जरूरत है।”

रतन कहने लगा, “माँजी के खर्च का हिसाब-किताब भी तो हमारी किसी की समझ में नहीं आता। वहाँ न तो घर-द्वार ही है, न और कुछ। एक गुमाश्ता है, उसके पास दो हज़ार रुपये भेजे गये हैं एक मिट्टी का मकान बनाने के लिए! देखिए तो सही बाबूजी, ये सब कैसे ऊँटपटाँग काम हैं! नौकर हैं, सो हम लोग जैसे कोई आदमी ही नहीं हैं!”

उसके क्षोभ और नाराजगी को देखते हुए मैंने कहा, “तुम वहाँ न जाओ तो क्या है रतन? जबरदस्ती तो तुम्हें कोई कहीं ले नहीं जा सकता?”

मेरी बात से रतन को कोई सान्त्वना नहीं मिली। बोला, “माँजी ले जा सकती हैं। क्या जाने क्या जादू-मन्त्र जानती हैं वे! अगर कहें कि तुम लोगों को यमराज के घर जाना होगा, तो इतने आदमियों में किसी की हिम्मत नहीं कि कह दे, 'ना!” यह कहकर वह मुँह भारी करके चला गया।

बात तो रतन गुस्से से ही कह गया था, पर वह मुझे मानो अकस्मात् एक नये तथ्य का संवाद दे गया। सिर्फ मेरी ही नहीं सभी की यह एक ही दशा है। उस जादू-मंत्र की बात ही सोचने लगा। मन्त्र-तन्त्र पर सचमुच ही मेरा विश्वास है सो बात नहीं, परन्तु घर-भर के लोगों में किसी में भी जो इतनी-सी शक्ति नहीं कि यमराज के घर जाने की आज्ञा तक की उपेक्षा कर सके, सो वह आखिर है कौन चीज़!

इसके समस्त सम्बन्धों से अपने को विच्छिन्न करने के लिए मैंने क्या-क्या नहीं किया! लड़-झगड़कर चल दिया हूँ, सन्यासी होकर भी देख लिया, यहाँ तक कि देश छोड़कर बहुत दूर चला गया हूँ जिससे फिर कभी मुलाकात ही न हो, परन्तु मेरी समस्त चेष्टाएँ किसी गोल चीज पर सीधी लकीर खींचने के समान बारम्बार केवल व्यर्थ ही हुई हैं। अपने को हजार बार धिक्कारने पर भी अपनी कमजोरी के आगे आखिर मैं पराजित ही हुआ हूँ, और इसी बात का खयाल करके अन्त में जब मैंने आत्म-समर्पण कर दिया तब रतन ने आकर आज मुझे इस बात की खबर दी, “राजलक्ष्मी जादू-मन्त्र जानती है!”

बात ठीक है। लेकिन इसी रतन से अगर जिरह करके पूछा जाय तो मालूम होगा कि वह खुद भी इस बात पर विश्वास नहीं करता।

सहसा देखा कि राजलक्ष्मी एक पत्थर की प्याली में कुछ लिये हुए व्यस्त भाव से इधर ही से नीचे जा रही है। मैंने बुलाकर कहा, “सुनो तो, सभी कहते हैं कि तुम जादू-मन्त्र जानती हो!”

वह चौंककर खड़ी हो गयी और बोली, “क्या जानती हूँ?”

मैंने कहा, “जादू-मन्त्र!”

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